Hanuman Bahuk Paath

श्री हनुमान बाहुक पाठ

छप्पय

सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।

भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥

गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।

जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥

कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।

गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥

अर्थ: उनके शरीर का रंग सूर्य के उदय के समय की तरह है, वे समुद्र को पार करके श्रीजानकीजी के दुख को दूर करने वाले हैं, उनकी बाहें आकाश तक पहुँचती हैं, उनका रूप डरावना है और वे काल के साथ भी काल हैं। वे लंका के गहरे वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, जलाने में सक्षम थे, वे टेढ़ी भौंहों वाले हैं, और वे राक्षसों के गर्व और अहंकार को नष्ट करने के लिए शक्तिशाली हैं। तुलसीदास जी कहते हैं – वे श्रीपवनकुमार की सेवा करने के लिए बहुत अनुकूल हैं, वे हमेशा अपने भक्तों के साथ हैं और उनकी सभी भयानक संकटों को गुण-गान, प्रणाम, ध्यान, और नाम जाप के माध्यम से दूर करने में सक्षम हैं।

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।

उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥

पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।

कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥

कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।

संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥

अर्थ: वे स्वर्ण पर्वत (सुमेरु) के समान शरीर वाले हैं, जिनकी तेज रौशनी सूर्य के समान है, उनके पास एक विशाल हृदय, अत्यधिक बलशाली बाहें हैं और उनके नाखून वज्र के जैसे तेज हैं। उनके आँखें, जीभ, दाँत और भयंकर चेहरा है, उनके बाल भूरे रंग के हैं, और उनकी पूँछ दुष्टों की सेनाओं को नष्ट करने की शक्ति रखती है। तुलसीदास कहते हैं – श्री पवन कुमार की भयानक मूर्ति, जिसके हृदय में वास करती है, उस व्यक्ति के पास दुख और पाप के स्वप्न भी नहीं आते, चाहे वो उनके सपनों में हों।

झूलना

पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो ।

बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥

जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो ।

दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥

अर्थ: शिव, स्वामी-कार्तिक, परशुराम, दैत्य, और देवता-समूह सभी युद्ध के समुंदर को पार करने के लिए योग्य योद्धा हैं। वेदों के रूप में वंदनीय लोग कहते हैं – आप पूरी तरह से प्रतिज्ञान रखने वाले चारों ओर कीर्ति और यश के साथ महान हैं। रघुनाथ जी ने उनके गुणों की कथा कही और उनके अत्यधिक पराक्रम से समुद्र समान भी जल को सूखा दिया। तुलसी के स्वामी सुंदर राजपूत (पवनकुमार) के बिना और किसी और को राक्षसों के सैन्य का नाश करने का संभाव नहीं है। (कोई और नहीं)

घनाक्षरी

भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन, अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।

पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥

कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।

बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥

अर्थ: सूर्य भगवान के पास जाकर हनुमान जी विद्या पढ़ने के इच्छुक थे, लेकिन सूर्यदेव ने बच्चों के खेल को देखकर उनके पास पढ़ने का कोई विचार नहीं किया (उन्होंने बहाना बना दिया कि मैं नहीं स्थिर रह सकता और बिना देखकर पढ़ाना असम्भव है)। हनुमान जी ने भास्कर की ओर मुख किया और पीठ की ओर पैरों से गति में बच्चों के खेल की तरह आकाश में चले गए, और इसके बाद उन्होंने पढ़ाने में किसी प्रकार का भ्रम नहीं किया। इस अद्वितीय खेल को देखकर इंद्र और अन्य लोकपाल, विष्णु, रुद्र, और ब्रह्मा आश्चर्य में डूब गए और उनके मन में उत्कृष्ट उत्साह उत्पन्न हुआ। तुलसीदास जी कहते हैं – सब यह सोचने लगे कि हनुमान जी ने न तो बल का ज्ञान रखा, न वीर रस को जानते थे, न उन्हें धैर्य का ज्ञान था, न हिम्मत का ज्ञान था, और न इन सबका शरीर में कोई भावना थी, लेकिन फिर भी वे उस अद्भुत क्रिया को कैसे कर दिखाया।

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।

कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥

बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।

नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥

अर्थ: महाभारत में, अर्जुन के रथ की पताका पर हनुमान जी ने गर्जन की। इसके परिणामस्वरूप, दुर्योधन की सेना में घबराहट फैल गई। द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह ने बताया कि हनुमान जी महाबली हैं और उनकी शक्ति समुद्र के जल के समान है। उनके ने खेल के दौरान धरती से सूर्य तक की दूरी को कम कर दिया था। सभी योद्धागण हनुमान जी को देखकर प्रशंसा करते थे। इस तरीके से हनुमान जी के दर्शन से उन्हें संसार में जीने का फल मिला।

गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।

द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥

संकट समाज असमंजस भो राम राज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।

साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥

अर्थ: समुद्र को गोखुर की तरह डराने के साथ, वे हनुमान के समान बहादुरी से लंका जैसे सुरक्षित नगर को होलिका की तरह जला दिया, जिससे दुश्मनों के शहर में हलचल मच गई। वे खेल में भारी पर्वत द्रोण की तरह उठाने में माहिर थे, जैसे कि वे एक गेंद को उछाल दिया। इससे कपिराज के लिए जैसे बेल-फल की तरह खेल की सामग्री बन गई। राम-राज्य में असीम संकट (लक्ष्मण की शक्ति) के बिना ही जो आया, वह युग के सारे कामों को पलभर में मुट्ठी में ले आया। तुलसी के स्वामी बहुत ही बहादुर और सामर्थ्यवान हैं, उनकी शक्तिशाली भुजाएँ लोकपालों को सुरक्षित रखने और स्थिरता से समर्थन प्रदान करने में मदद करती हैं।

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।

जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥

कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।

भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥

अर्थ: कच्छप की पीठ पर उनके पाँव के निशान समुद्र के जल को भरने के लिए एक सूचना की तरह थे, जैसे कि वे एक पानी भरने के बर्तन थे। राक्षसों के पराजय के समय, समुद्र वास्तव में उनके पीछे छिपने के लिए उनका सहायक बना, और वहीं विभिन्न बड़े मत्स्यों का निवास स्थान बन गया। तुलसीदासजी यह कहते हैं कि उनकी ताक़त ने रावण, कुम्भकर्ण, और मेघनाद को जलाने में भी अग्नि की तरह प्रचण्ड प्रकार से मदद की। भीष्मपितामह कहते हैं कि मेरी समझ में हनुमान जी के समान अत्यधिक बलवान और तीनों कालों और तीनों लोकों में कोई और नहीं हुए।

दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू, अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।

सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥

दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।

ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥

अर्थ: आप वह हनुमान जी हैं, जो राजा रामचंद्रजी के दूत हैं, पवनपुत्र हैं, अंजनी देवी के पुत्र हैं, और आपका तेज सूर्य के समान है। आप सीताजी के दुख को दूर करने वाले हैं, पाप और दोषों को मिटाने वाले हैं, और शरणागतों की सुरक्षा करने वाले हैं, और लक्ष्मणजी को अपने प्राणों के समान प्रिय हैं। तुलसीदासजी के अनुसार, आप तीनों लोकों में रावण जैसे दरिद्र और दुखियों का नाश करने के लिए प्रकट होते हैं। हे लोग! आपको अपने दिल में एक बुद्धिमान, गुणवान, और सेवा करने में निपुण हनुमान जी के समान चतुर स्वामी के रूप में बसाना चाहिए।

दवन दुवन दल भुवन बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।

पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु, सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥

लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।

राम को दुलारो दास बामदेव को निवास। नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥

अर्थ: जिनका पराक्रम दानवों की सेना को नष्ट करने में विश्व-प्रसिद्ध है, और जो वेदों के गुणगान करते हैं, वे कहते हैं कि इस संसार में देवताओं को कारागार से मुक्त करने वाला केवल पवनकुमार के सिवा और कौन है? आप पापों के अंधकार और दुख के रूप में पाले को कम करने में निपुण और सेवक बने हैं। आप प्रातः-काल के सूर्य के समान हैं, जो कमल को प्रसन्न करने में सक्षम हैं। तुलसीदासजी के दिल में सिर्फ हनुमान जी का भरोसा है, वे स्वप्नों में भी लोक और परलोक की चिंता नहीं करते, और वे शोक रहित हैं। रामचंद्रजी के प्रिय और शिव-स्वरूप (ग्यारह रुद्रों में एक) केसरी-नंदन का नाम कलिकाल में कल्प-वृक्ष के समान है।

महाबल सीम महा भीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।

कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥

दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।

सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥

अर्थ: आप अत्यधिक पराक्रम और बहादुरी के प्रतीक हैं, आपका जबरदस्त शारीरिक रूप वज्र के समान है, और आपकी ताकत युद्धभूमि में हलचल मचाने के लिए प्रसिद्ध है। आप सुन्दर करुणा और धैर्य के प्रतीक हैं, और आपका मानसिकता धर्म का पालन करने के लिए प्रसिद्ध है। आप दुष्टों के लिए भयंकर हैं, सज्जनों को संरक्षित करने वाले हैं, और आपकी स्मृति तुलसी के दुख को दूर करने में मदद करती है। आप सीताजी को खुशी देने वाले हैं, रघुनाथजी के प्रिय हैं, और सेवकों की मदद करने में पवनपुत्र बहुत साहसी हैं।

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर, मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।

धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥

खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।

आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥

अर्थ: आप सृष्टि के लिए ब्रह्मा, पालन के लिए विष्णु, मारने के लिए रुद्र, और जीवन को जीलाने के लिए अमृत के समान हैं; आप धरती को सम्भालने में, अंधकार को दूर करने में, सुख देने में, पोषण करने में, और दुष्टों को सजाने में मदद करते हैं, और आप सेवकों की इच्छाओं को पूरा करने में मोदक (मिठ्ठा) के दाता हैं। तीनों लोकों में दुःखी लोगों के दुःख को दूर करने के लिए तुलसी के स्वामी श्रीहनुमान जी दृढ़ प्रतिज्ञ हैं।

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।

देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।

सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥

अर्थ: जानकीनाथ ने हनुमान जी की सेवा को समझ कर संकोच किया, अर्थात् उनके कृतज्ञता के साथ डर गए, और उन्होंने शिव के पक्ष में रहना चुना, जहां स्वर्ग के स्वामी इन्द्र हैं। देवी-देवता और दानव सभी दयालुता के प्रतीक बनकर हाथ जोड़ते हैं, लेकिन फिर भी यह जानकर कि दरिद्र-दुखिया राजा कौन हैं। यह सिद्धांत का समर्थन करता है कि कौन हो सकता है जो हनुमान जी के सेवक के खिलाफ हो, जो जागते, सोते, बैठते, डोलते, और खेलते वक्त उनकी सेवा में आनंदित रहते हैं। उनका इस भव्य सिद्धांत का समर्थन है कि वह जिसके हृदय में अंजनीकुमार की भक्ति है।

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।

लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥

केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।

बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥

अर्थ: जिसके दिल में हनुमान जी की भक्ति है, उस पर अपने सेवकों और पार्वतीजी के साथ शंकर भगवान, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि फिर उस पुरुष के लिए लोक और परलोक में शोक क्यों होना चाहिए, जो तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रय में है? केसरी-नंदन, दया-स्वरूप हनुमान जी के प्रसन्न होने से सभी सिद्ध-मुनि उस व्यक्ति पर दयालु होते हैं, और उन्हें बच्चे के समान पालते हैं। इस प्रकार कपीश्वर की कीर्ति किसी और की तरह निर्मल है।

करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ, महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।

बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम, लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥

आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।

मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥

अर्थ: तुम दया के स्रोत, बुद्धि और बल के धरोहर, आनंद के मन्दिर और गुण और ज्ञान के गहने हो; तुम राजा रामचंद्र के प्रिय हो, शंकरजी के रूप और नाम में अर्थ, धर्म, काम, और मोक्ष के प्रदाता हो। हे हनुमान जी! आप अपनी शक्ति से श्रीरघुनाथजी के आचार-स्वभाव, लोक-संविदान, और वेद-विधि के ज्ञाता हो! मन, वचन, और क्रिया के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए तुलसी आपका वफादार है, और आप एक चतुर स्वामी हैं, जो बाहर और अंदर के सभी रहस्यों को जानते हैं।

मन को अगम तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।

देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।

बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।

बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥

अर्थ: अरे कपिराज! तुमने भगवान राम के कार्य को सारे लोगों के साथ-साथ आसान बना दिया, जिसका मन में दुर्भाग्य था। अरे केशरी कुमार! तुम देवताओं को मुक्त करने वाले हो, युद्धभूमि पर उत्साह भरने वाले हो, और तुम्हारी महिमा सदियों से दुनिया में प्रसिद्ध है। तुम एक अद्भुत योद्धा हो! तुलसी के लिए तुम्हारी ताकत क्यों कम हो गई, जिसे सुनकर साधु खुश हो गए हैं और दुष्ट भी संतुष्ट हो रहे हैं? अरे अंजनीकुमार! मेरी गलती को सुधारो, जैसे तुम्हारी स्वीकृति से सुधरी है।

सवैया

जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।

ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।

दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥

अर्थ: हे हनुमान जी! आप ज्ञान के श्रेष्ठ हैं और सदैव सेवकों के दिलों में विराजमान हैं। मैं किसी का क्या नुकसान करता हूँ या बिगाड़ता हूँ, इसमें तुलसी का कोई आदेश नहीं है। हालांकि मेरा मन हार गया है, तो भी मेरी गुनाह को कृपया सुनिए, जिससे मैं आगे के लिए सजग हो सकूं।

तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।

तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।

बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥

अर्थ: हे वानरराज! आपके आगमन से शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते, और वह घर जिसे आपने नष्ट कर दिया, उसे कोई और कैसे बसा सकता है? हे गरीबनिवाज! वे लोग जो आपके प्रसन्न होने से पीड़ा में विराजते हैं, वे वास्तव में शत्रुओं के दिलों में दर्द के रूप में प्रतिष्ठित हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि आपका नाम लेने से सभी संकट और संदेह जैसे मकड़ी के जाल के समान फट जाते हैं। बलिहारी! क्या आप मेरी ही बजाय बूढ़े हो गए हैं, या फिर बहुत सारे गरीबों का पालन करते-करते थक गए हैं? (यह बच्चों को पालने में थोड़ी ढील कर रहे हैं)।

सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।

तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥

तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।

बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥

अर्थ: आपने समुंदर को पार करके विशाल राक्षसों का संहार किया और लंका जैसे भयंकर किले को जलाया। हे युद्ध के असली शेर! वे राक्षस दुश्मन होकर हाथी के बच्चे की तरह थे, लेकिन आपने उन्हें बिल्कुल नष्ट कर दिया। आप एक निष्कल्म और उत्तम स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी के दोष और दुःख को सहते हैं (यह वाकई आश्चर्य की बात है)। हे वानर-रूपी वायुपुत्र! बहुत सारे दुष्ट लोग वृक्षों के रूप में छिप जाते हैं, आपको उन्हें पक्षियों की तरह पकड़ लेना चाहिए।

अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।

बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥

राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।

पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥

अर्थ: हे हनुमान जी, अक्षयकुमार को परास्त करने वाले! आपने अशोक-वाटिका को नष्ट किया, और रावण जैसे शक्तिशाली योद्धा को मुख से ताकने के लिए एक भी बार नहीं देखा, अर्थात् उसका कोई महत्व नहीं दिया। आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण जैसे महावीरों के प्राणसंग्रहण में बच्चों की तरह हैं। रावण के तीन महान शक्तिशाली पुत्रों के खिलाफ, भगवान राम की महानता अग्नि की तरह है, और पवनपुत्र हनुमान उनके साथ उनके लिए हवा की तरह हैं। वे ही तुलसीदास को हमेशा पाप, शाप और संताप से बचाते हैं।

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन, मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।

सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।

साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥२०॥

अर्थ: हे हनुमान जी! मुझे मुश्किल में है, कृपया अपनी प्रतिज्ञा न भूलें। सोचिए उसके बारे में जो दुनिया को जानता है, आपका भक्त है, हमेशा विनम्र और प्रसन्न रहने वाला। ओ स्वामी कपिराज! क्या तुलसी कभी आपकी सेवा के योग्य था? अगर कोई गलती हुई है, तो कृपया मुझे माफ करें, लेकिन अपने भक्त का ध्यान रखें। अगर आप मुझे पापी मानते हैं, तो कृपया मुझे सख्त सजा दें, लेकिन उसको नुकसान न पहुंचाएं जो आपको मिष्ठान देने को तैयार है और मौत के कगार पर है। हे शक्तिशाली और साहसी हनुमान, भगवान रघुनाथ के प्रिय! कृपया मेरी बाहों के दर्द को तुरंत दूर करें।

बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।

रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥

बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।

केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर, बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥

अर्थ: हे दोस्तों! मैं बलि हूं, और जब आपने उस बच्चे को देखा, तो आपने उसका साथ देने का निर्णय किया और बिना किसी जाल और माया के, आपने उस पर अद्वितीय करुणा दिखाई। सच में, तुलसी आपका भक्त है और वह आप पर पूरा भरोसा रखता है, आपकी शक्ति और आशा करता है। किसी भी भयंकर काल ने किसे अच्छानक बेचैन नहीं किया? कृपया इस महाशक्ति के पैर को मेरे सिर पर भी देखकर, उसे वहां से हटा दें। हे केशरी पुत्र, शक्तिशाली वीर! आप युद्ध में हलचल मचाने वाले हैं, राहु की माता सिंहिका के समान बाहु की दर्द को हरा दें।

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।

राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥

साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।

पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥२२॥

अर्थ: हे केशरीकुमार! आपने उजड़े हुए को बसाया है (सुग्रीव और विभीषण को) और बसे हुए को उजाड़ दिया है (रावण और उसके साथी को), अपने उस शक्ति का स्मरण कीजिए। हे रामचन्द्रजी के सेवकों के लिए आप कल्पवृक्ष हैं और दीन-दुर्बलों के लिए आपका साथी हैं। हे वीर! तुलसी के माथे पर आपके समान महान स्वामी होने के बावजूद, उसको बंधकर मार दिया जाता है। मैं बलि हूं, मेरी भुजाएँ जल के समान विशाल हैं और इस पीड़ा को उनमें समाप्त किया गया है, जैसे कि जलचर को जल में पकड़कर मुकाबला किया जाता है। कृपया इस जलचर को मकड़ी की तरह पकड़कर उसका मुँह फाड़ दीजिए।

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।

मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे, जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।

महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥

अर्थ: मेरे अंदर रामचन्द्रजी के प्रति स्नेह है, मैं उनकी भक्ति करता हूं, और उनके भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता जी की कृपा से मेरे पास साहस है, जिससे मैं कठिनाइयों का सामना कर सकता हूं। कृपया मेरे शोक और संकट को दूर करें। आनन्दरूपी वानर बंदर ने रोग की तरह बड़े समुद्र को देखकर हार मान ली है, और वनरूपी जाम्बवान को आप पर पूरा भरोसा है। हे कृपालु! आप कृपा से भरपूर होते हैं, कृपया तुलसी के सुंदर प्रेमरूपी पर्वत से कूदकर, मेरे श्रेष्ठ स्थान (हृदय) के सूबल पर्वत पर बैठकर जाम्बवान जी की प्रतीक्षा करते हुए मेरी मदद करें। हे महाबली बाणसेना के योद्धा! क्यों नहीं लंकिनी को मेरी बाहु की पीड़ा से मरोड़कर मार डालते हैं?

लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।

कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।

बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि, उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥२४॥

अर्थ: मैं तीनों लोकों (भूलोक, स्वर्गलोक, पाताललोक) में चारों दिशाओं से देखता हूं, लेकिन आपके समान कोई नहीं है। हे नाथ! सब कर्म, समय, लोकपाल, और सभी स्थावर-जंगम जीवों का संचय आपके हाथ में है, कृपया अपनी महिमा का विचार करें। हे देव! तुलसी आपका विशेष सेवक है, उसके हृदय में आपका वास है, और वह गहरे दुःख में है। वात-व्याधि द्वारा उत्पन्न बाहु की पीड़ा को कीचड़ की लता के समान समझकर उसकी जड़ को बाँधकर वानरी खेल के सहारे से निकाल दीजिए।

करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।

बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥

आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।

पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की, बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥२५॥

अर्थ: कर्मरूपी भयंकर कंसराज के भरोसे राक्षसी पूतना बहन बकासुर की किसी से डरेगी क्या? वह बच्चों को मारने में अत्यंत भयावनी है, और उसकी लीलाएँ अद्वितीय हैं, जिनका कही जाने का कोई साक्षर नहीं है, वह अपनी बड़ी बाहुओं से छोटे शिशुओं को छलकर मारने का प्रयास करेगी। कृपया आप विचार करें, वह एक सुंदर रूप में आई है, और यदि आप-सर्ख के गुणों को बच्चों पर प्रकट करेंगे, तो सभी का पाप दूर हो जाएगा। हे महाबली कपिराज! तुलसी की बाहु की पीड़ा पूतना पिशाचिनी के समान है, और आप बालकृष्ण रूप हैं, यह आपके ही मारने से मरेगी।

भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।

करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।

आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥२६॥

अर्थ: यह पीड़ा किसी कारण से नहीं है, यह केवल मेरे भयंकर पापों का परिणाम है, और इसमें दुख और धोखा है। मृत्यु और अन्य प्रकार के अद्वितीय उपाय के बजाय, यह केवल मेरे पाप की छाया है, ओ मन की मैली पापिनी पूतना! तुम जाओ, नहीं तो मैं तुम्हें डंके की तरह पीटूंगा, ताकि तुम कपिराज की स्वभाव को नहीं बिगाड़ो। जो बाहु की पीड़ा देती है, मैं अब महाबली बलवान हनुमान जी की सहायता और सुरक्षा करता हूं, इसका मतलब वह अब आपको हानि नहीं पहुँचा सकती।

सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।

लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार, जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥

तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।

भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥

अर्थ: सिंहिका की शक्ति को परास्त करके सुरसा की चाल को ठीक किया, लंकिनी को मार गिराया, और अशोक-वाटिका को उजाड़ दिया। लंकापुरी को नष्ट किया। यमराज का खड़ग उनके पर्दे को फाड़कर मेघनाद की माता और रावण की पत्नी को राजमहल से बाहर ले आए। हे महाबली कपिराज! तुलसी की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है, और आपने केवल मेरे बाहु की पीड़ा को छोड़ दिया है, किसी और की वजह से।

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।

तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब, तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥

साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।

आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८॥

अर्थ: ओ वीर! आपके जवानी के खेलों के सुनते ही, लोग चौंक जाते हैं, और देवताएँ जैसे कि इंद्र, सूर्य, और राहु अपनी दिव्यता भूल जाते हैं। सभी लोकपाल आपकी शक्तिशाली बाहों के सामर्थ्य में संतुष्ट रहते हैं, और आपका नाम उच्चारण करने से किसी का दुख दूर हो जाता है। यह स्पष्ट है कि साहसी चोरों और तपस्वियों का नेतृत्व केवल कपिनाथ के हाथ में होता है, जैसा कि शास्त्र और वेदों में स्पष्ट किया गया है। तुलसीदास को इतने दिनों से क्या परेशानी हो रही है, क्या यह आपकी सुस्ती है या गुस्सा, मजाक, या शिक्षा है, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।

टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।

कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥

इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु, कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।

सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥२९॥

अर्थ: हे गरीबों के पालन करने वाले दयालु! मैं एक दिन मैं अत्यंत दरिद्रता से घिरा हुआ घर-घर में भटक रहा था, लेकिन आपने मुझे बुलाकर बच्चे की तरह पाला-पोषा है। हे वीर अंजनीकुमार! मुख्य रूप से आपने ही मेरी सुरक्षा की है, आप अपने भक्तों को कभी नहीं भूलेंगे, मुझे भी यह यकीन है। हे कपिराज! आज आप हर प्रकार से सशक्त हैं, मैं सच्चाई में कहता हूँ, तीनों लोकों में आपके समान कौन है? लेकिन मैंने यह देखा है कि यह सेवक दुखी है, बच्चों के खेलकूद के साथ चिड़िया की मृत्यु की तरह हो रही है और आप यह सब देख रहे हैं।

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।

औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।

चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥

अर्थ: मेरे पापों या तीनों प्रकार के दुखों से मेरी बाहु की पीड़ा बढ़ गई है, जिसका कोई विवाद नहीं है, और उसे कम करने के लिए कई औषधियाँ, यंत्र, मंत्र, और टोटके आदि का प्रयास किया गया है, देवताओं की पूजा की गई है, लेकिन सब बेकार था, पीड़ा बढ़ी ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, और महेश, कर्म, काल, और संसार का जाल, कौन है जो आपकी आज्ञा का पालन नहीं करता है। हे रामदूत! तुलसी आपका भक्त है और आपने उसे अपना सेवक कहा है। हे वीर! आपकी इस बिना-कस चाह का सामर्थ्य मुझे इस पीड़े से भी अधिक परेशान कर रहा है।

दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।

बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥

एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।

थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥

अर्थ: आप वो दूत हैं जो राजा रामचंद्र के हैं, पवनपुत्र हैं, हाथ-पैर में शक्ति रखने वाले हैं और बेहालों का सहायक हैं। आपका यश अत्यंत प्रसिद्ध है, वेद आपकी प्रशंसा करते हैं, और रावण जैसे त्रिलोक-विजयी योद्धा भी आपकी शक्ति से पीड़ित हो गए हैं। इतने महान और योग्य स्वामी के आशीर्वाद पाने के बावजूद, आपका श्रेष्ठ सेवक आज भी इस थोड़ी-सी बाहु की पीड़ा से व्यथित हो रहा है। तुलसीदास को इस दुख से बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि उनके कौन-से पाप या आपके क्रोध से आपका प्रत्यक्ष सहायक बेहोश हो गया है।

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।

पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग, राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।

क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥

अर्थ: देवी, देवता, दैत्य, मनुष्य, मुनि, सिद्ध, और नाग, सभी छोटे और बड़े चेतन जीव हैं, और पूतना, पिशाचिनी, और राक्षसी जैसे भयंकर प्राणी, वे सब रामदूत पवनकुमार की आज्ञा का सम्मान करते हैं। हनुमान जी की दोहाई सुनकर, भयंकर यंत्र-मंत्र, धोखाधारी, और बुरे रोगों के साथ विरोध करते हैं और वह स्थान छोड़ देते हैं। मेरे दोषी कर्म पर क्रोध करें, मेरे दुःख को दूर करें, और मेरे पापों को सुधारें।

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।

तेरे बल राम राज किये सब सुर काज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।

तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥३३॥

अर्थ: आपके बल ने युद्ध में वानरों को रावण से जीत दिलाई और आपके महान शक्ति से राक्षसों को हर दिया। आपके अद्भुत शक्तियों ने राजा रामचंद्रजी के द्वारा देवताओं के सारे कार्य पूरे किए, और आपने उनके समाज को सजाया। आपके गुणों की प्रशंसा करने से देवता भी हैरान होते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश के आंखों में आँसू आते हैं। हे वानरों के स्वामी! हाथ मेरे तुलसी के माथे पर फेरें, आपके जैसे आपकी मर्यादा का सच्चा अनुषासक, वानरों के राजा कभी दुःखी नहीं देखे गए।

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।

भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥

अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।

बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥३४॥

अर्थ: मैं आपके टुकड़ों से पैदा हुआ हूँ, और चूकने पर भी मौन नहीं हो जाता। मैं छोटा सा कुमार आपके सेवक हूँ, लेकिन कृपा कीजिए और मेरी ओर देखिए। हे भोलेनाथ! आप अपने सादगी से ही थोड़े से नाराज हो जाते हैं, मुझे संतुष्ट करके मेरे पास आ जाइए, मुझे अपना सेवक मानिए, कृपा करके दुर्दशा न बनाइए। आप जल हैं तो मैं मछली हूँ, आप माँ हैं तो मैं एक बच्चा हूँ, कृपा करके देरी न कीजिए, मैं आपके ही आश्रय की तलाश में हूँ। मुझे एक परेशान बच्चे की तरह समझ कर उसे सहारा दें, तुलसी की पीड़ा को दूर करने के लिए अपनी करुणा का प्रतीक दिखाएं, कृपया।

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।

बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥

करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।

खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥३५॥

अर्थ: रोग, अशुभ योग, और दुष्ट लोगों ने मेरे चारों ओर घेर लिया है, जैसे कि दिन में बादलों का भारी समूह आकाश में झपटकता है। यह दुःखों की बरसात के रूप में मुझे बर्बाद करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन महाबलवान हनुमान ने उनके क्रोध को जवाब दिया और बिना किसी पाप के उन्होंने इन दुष्टों को अग्नि के समान जला दिया। हे दया का संग्रहकर्ता महाबलवान हनुमान जी! आप हँसते हुए देखिए और अपनी शक्तिशाली फूंक के साथ विरोधी सेना को उड़ा दीजिए। हे केशरीकिशोर वीर! राक्षस कुरोग ने तुलसी को खा लिया था, लेकिन आपने उसकी रक्षा की है और मुझे बचाया है।

सवैया

राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।

पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥

बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।

श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥

अर्थ: हे गोस्वामी हनुमान जी! आप उत्कृष्ट स्वामी हैं और हमेशा श्रीरामचंद्रजी के सेवकों के पक्ष में रहते हैं। “राम-राम” शब्दों ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है, जो सदा आनंद और मंगल का कारण है। हे बाहुपगार! आपके बाहु की पीड़ा से मैं सुख को भूलकर दुखी होकर पुकार रहा हूँ। हे रघुकुल के वीर! कृपया मेरी पीड़ा को दूर करें, ताकि मैं दुर्बल और असमर्थ होने के बावजूद भी आपके दरबार में रह सकूँ।

घनाक्षरी

काल की करालता करम कठिनाई कीधौ, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।

बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥

लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।

भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥३७॥

अर्थ: मुझे नहीं पता कि यह काल की भयानकता, कर्मों की कठिनाइयों, पाप के प्रभाव, या प्राकृतिक गुस्से की वजह से हो रही है, लेकिन रात-दिन एक बुरी तरह की पीड़ा हो रही है, जो सहनी नहीं जा सकती, और वही बांह अब भी पवनकुमार द्वारा पकड़ी गई है। तुलसी के पौधे आपके प्यार से लगाए गए हैं। इनका दर्दनाक हाल उन तीनों कठिनाइयों के तटस्थ है, और आपके करुणासागर से इन्हें ठीक करने का काम करेगा। हे दयानिधान रामचंद्रजी, आप सभी प्राणियों, अपने, और अपनी जगह के सभी के रुदान की प्रक्रिया जानते हैं।

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है ।

देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥

हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।

कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥३८॥

अर्थ: पाँव, पेट, बाहु, और मुख की पीड़ा, शारीरिक दर्द ने मुझे जीर्ण और क्षीण कर दिया है। देवता, पितर, प्रेत, कर्म, काल, और दुष्ट ग्रह, ये सभी मेरे ऊपर वार कर रहे हैं जैसे तोपों की बाढ़ करते हैं। मैं बचपन से ही आपके हाथों में हूँ, बिना किसी मूल्य के और मैंने अपने मन में राम का नाम लिख लिया है। हे राजा रामचंद्रजी! क्या ऐसा कुछ हुआ है कि अगस्त्य मुनि के सेवक गाय के खुर में डूब गया हो?

बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि, मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।

राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥

सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ, जिनके समूह साके जागत जहान है ।

तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥३९॥

अर्थ: मेरी बाहु की पीड़ा रूपी है, वह सुबाहु और मारीच जैसे राक्षसों और ताड़का के रूप में हैं। मेरे मुख की पीड़ा और अन्य बुरे रोगों के रूप में दूसरे राक्षसों से आई है। मैं चाहता हूँ कि मैं रामनाम का जप प्रेम के साथ कर सकूँ, परंतु क्या काल के नियमों के अनुसार ये भूत मेरे नियंत्रण में हैं? (यह संभावना नहीं है।) जिनका नाम संसार में बड़ा हो रहा है, वे “र” और “म” दो अक्षरों को याद करने पर मेरी मदद करेंगे। हे तुलसी! तुम ताड़का का वध करने वाले महायोद्धा के साथ जिन्होंने उन्हें अपने तीर का निशाना बनाया था, वे बड़े फल के समान इन्हें अगले बिन्दु में खत्म कर देंगे।

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।

परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥

खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।

तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥

अर्थ: मैं बचपन से ही खुले मन से श्रीरामचंद्रजी के सामने आया, राम नाम का टुकड़ा-टुकड़ी चबाता और खाता था। फिर युवावस्था में, लोकरीति का पालन करते हुए, मैं अज्ञान के कारण राजा रामचंद्रजी के पावन प्रेम को छुआ और विश्वास तोड़ दिया। उस समय, मुझे अंजनीकुमार ने अपनाया, और रामचंद्रजी के पवित्र हाथों से मेरा सुधार करवाया। तुलसी गोसाईं बन गया, पिछले गलत दिनों को भूल दिया, आखिरकार उसका फल आज अच्छी तरह से प्राप्त हो रहा है।

असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।

तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥

नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।

ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥४१॥

अर्थ: जिसे भोजन और वस्त्र से वंचित, भयंकर विषाद में डूबा हुआ, दीन और दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था, उस अनाथ तुलसी को दयासागर स्वामी रघुनाथजी ने अपने संगठन से उत्तम फल दिया। उसके साथ होते हुए यह नीच व्यक्ति अपनी गर्वभावन भावनाओं के कारण रामजी के भजन को छोड़ दिया, और इसी से उसके शरीर में से भयंकर बर्तन फूट गए हैं, जैसे कोई नमक की छिद्र छिद्र होकर बर्तन से बाहर निकल रहा हो।

जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।

तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥

मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।

भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥४२॥

अर्थ: जानकी-जीवन रामचन्द्रजी के दास कहलाकर संसार में जीवित रहकर और मरने के लिए काशी और गंगा किनारे होने पर भी, तुलसी के दोनों हाथों में लड्डू हैं, जिससे जीने-मरने का कोई दर नहीं है। सभी लोग मुझे राम के दास कहते हैं और मेरे मन में भी यह गर्व है कि मैं रामचंद्रजी को छोड़कर न शिव का भक्त हूं, न विष्णु का। शरीर की भारी पीड़ा से मैं बेहद दुखी हूँ, और उसको दूर करने के लिए अन्य कोई साधना नहीं है, सिवाय रघुनाथजी के।

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।

मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥

ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।

कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥४३॥

अर्थ: हे हनुमान जी! स्वामी सीतानाथजी हमें सदैव सहायता करते हैं, और हितोपदेश के लिए महादेव जैसे गुरु के साथ ही हैं। मैं तो तन, मन, वचन से आपके चरणों की शरण में हूं, और आपके भरोसे मैंने देवताओं को देवता के रूप में नहीं माना। रोग, प्रेत या किसी दुष्ट के उपद्रव से होने वाली पीड़ा को दूर करके तुलसी को अपना सच्चा सेवक मानकर, इसकी शांति कीजिए। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ, भूतनाथ! आपके बल से रोगरुपी महासागर को गाय के खुर के समान कुशल मंगल में डूबा दीजिए।

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।

हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥

माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।

तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं, हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥४४॥

अर्थ: मैं हनुमान जी से, सुजान राजा राम से और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, कृपया विचार से सुनिए। यह देखा जा सकता है कि विधाता ने सम्पूर्ण दुनिया को हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण, और दोष से भर दिया है। वेद में कहा गया है कि माया, जीव, काल, कर्म, और स्वभाव के प्रबल संचालक भगवान रामचंद्रजी हैं। मैं इस बात को अपने मन में सत्य मानता हूँ। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि मेरे पर आपकी कृपा बनी रहे। फिर भी, मैं जानकर भी चुप रहूंगा क्योंकि वो व्यक्ति ही जो कुछ बोया है, वही काट सकता है।


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